Thursday, August 13, 2015

झारखंडी सिनेमा: भविष्य?


जब मैं स्कूल में था, तो मेरे बिहारी मित्र अक्सर हम आदिवासी छात्रों को कई नामों से बुलाते थे जैसे “जंगली”, “पत्ता” इत्यादि. उनके मन में हमारी छवि एक भाला पकड़े और केले के पत्ते लपेटे हुए जंगली सी थी. इन सब का कारण उनकी अज्ञानता थी. जो भी उनके मन में हमारे बारे में सूचनाएं आती थी वह उनक माता पिता के द्वारा डाली जाती थीं. वैसे माता पिता जो हमसे कभी भी रु-ब-रु नहीं हुए, बस हमारे बारे में कल्पना ही करते रहे. उन्होंने हमारे बारे में न पढ़ा न किसी और माध्यम से हमें जाना. इसीलिए जैसे मन में आया हमारी व्याख्या की गयी.

उसी तरह २००६ में मैंने मनिपाल यूनिवर्सिटी, मनिपाल में पत्रकारिता का कोर्स करने के लिए दाखिला लिया. वहां जाने के बाद मैंने पाया की झारखण्ड के बाहर, झारखण्ड की अपनी कोई पहचान नहीं है. बहुत हुआ तो झारखण्ड को लोग नक्सलवाद की वजह से ही जानते हैं. चूँकि उन्होंने झारखंडी कला का नाम तक नहीं सुना था इसीलिए उन्होंने झारखंडी संस्कृति को बिहारी कला क्षेत्र से ही जोड़ कर देखा था. उन्हें लगता था बिहार की भाषा-संस्कृति ही झारखंडी संस्कृति का स्वरुप है. वे भोजपुरी सिनेमा देख कर झारखंडी जीवन शैली का अनुमान लगते थे. कहते थे “ झारखंडी हो या बिहारी एक ही बात है”. उन्हें हमारी जनजातीय जनसँख्या के बारे में बिलकुल भी ज्ञान नहीं था. होता भी कैसे , जब   हमने खुद को उनके सामने  सही तरीके से पेश ही नहीं किया.

किसी भी समाज को एक शक्ल प्रदान करने के लिए उसकी कला बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है. साहित्य से हम समाज को पढ़ पाते हैं , उनके विचार, दुःख-दर्द उनकी खुशियों में शरीक हो पाते हैं. उनके गीत संगीत से हम उन्हें सुन पाते हैं. चित्रकला से हम उन्हें देख पाते हैं. उसी तरह चलचित्र से हमें मोटा-मोटी एक समाज के बारे में काफी कुछ देखने और सुनने को मिलता है. इतिहास गवाह है की जिस भी समाज ने अपने कला और संस्कृति को विकसित नहीं किया वह लुप्त होने के कगार पर जा पहुंचा है.बड़े दुःख की बात है की आज जो भी झारखंडी या आदिवासी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है वह अपनी भाषा, संस्कृति और कला को दरकिनार करते हुए सिर्फ धर्म को असली माध्यम समझ रहा है. जबकि समय समय पर यह देखा गया है की धार्मिक कट्टरता ने समाज को हिंसा के मार्ग पर प्रेरित किया है और कला ने अहिंसा की मार्ग पर. कला के माध्यम से हम अपने आपको राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पटल पर रख सकते हैं ताकि दूसरे समाज के लोग हमें बेहतर समझ व जान सकें.

सिनेमा आज के युग में खुद को संसार के सामने प्रस्तुतु करने का सबसे सशक्त माध्यम है. इस कला के माध्यम से हम न केवल अपने विचारों को विश्व के सामने रख सकते हैं बल्कि हमारे जीवन की वास्तविकता को करीब से दिखा और सुना सकते हैं. सिनेमा अपने आप में नाट्य, साहित्य, संगीत, नृत्य इत्यादि को समेट कर परोसने की क्षमता रखता है. ज़रा सोचिये हम सिनेमा के माध्यम से क्या क्या कर सकते हैं. हमें आज इस कला क्षेत्र को टटोलने और इसकी संभावनाओं को ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने की ज़रूरत है.

परन्तु यह सब बिना सरकारी कृपा के संभव नहीं है क्योंकि फिल्म निर्माण में एक न्यूनतम पूँजी की आवश्यकता होती है और नयी-नवेली झारखंडी फिल्म इंडस्ट्री को खड़े होने के लिए तो बिलकुल ही आवश्यक है की सरकार कुछ करे. देश के कुछ राज्य सरकार जैसे पश्चिम बंगाल, केरल इत्यादि इस बात को भली - भांति समझते हैं की राज्य को गौरव और पहचान मुख्यतः दो चीज़ों से ज्यादा मिलती है, खेल और सिनेमा. अब तक हम कई मौकों पर सरकार द्वारा खेल को बढ़ावा देने के बारे में पढ़ते और सुनते आये हैं. पर सिनेमा के क्षेत्र में अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गयी.

केरल की देखें तो वहां के राज्य सरकार ने एक मंत्रालय खोल रखा है जिसका नाम है वन, पर्यावरण, परिवहन, खेल एवं चलचित्र मंत्रालय. इस मंत्रालय के अंतर्गत केरल सरकार ने केरल स्टेट फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन का गठन किया हुआ है जो फिल्म निर्माण के क्षेत्र में वहां के स्थानीय  फिल्मकारों को सब्सिडी प्रदान करती है. केरल सरकार के अपने स्टूडियो, लैब एवं फिल्म थिएटर हैं जो वहां फिल्म निर्माण से ले कर एक्सिबिशन तक की सारी सुविधाओं से प्रदान करती हैं. यही नहीं केरल की अपनी फिल्म एवं नाट्य कला संसथान भी हैं जहाँ फिल्म निर्माण एवं अभिनय की शिक्षा दी जाती है. केरल में होने वाली वार्षिक अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह दुनिया भर में जानी और मानी जाती है.

उसी तरह बंगाल सरकार ने भी अपने क्षेत्रीय सिनेमा के विकास के लिए अनेक प्रयास किये हैं जैसे प्रशिक्षण संस्थान, सिनेमा हॉल (नंदन) इत्यादि का निर्माण, आदि. महाराष्ट्र, मणिपुर और कर्नाटक भी अपने अपने क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाये.

गौरतलब हो की आये दिन अनेक झारखंडी फिल्मकारों ने झारखण्ड का अलग अलग मंचो पर नाम रौशन किया है. श्रीप्रकाश, मेघनाथ, बीजू टोप्पो और श्रीराम डाल्टन ने न केवल देश के सर्वप्रतिष्ठित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते बल्कि अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी झारखण्ड के झंडे गाड़े हैं. इनमें से कई झारखंडी फ़िल्मकार पैसों के आभाव में खेत बेच कर या चंदा मांग कर फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं. फिल्मकारों में जज्बे की कोई कमी नहीं दीख पड़ती परन्तु डर लगता है की इनके हौसले पूँजी एवं सही आधारभूत संरचना के आभाव में पस्त न हो जायें.

आने वाले दिनों में, मेरी तरह ही कई झारखंडी छात्र, सत्यजित रे फिल्म एवं टेलिविज़न संसथान (SRFTI), फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (FTII), पुणे और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) सरीखे विभिन्न संस्थानों से फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में प्रशिक्षित हो कर झारखण्ड प्रस्थान करने वाले हैं. सबका यही सपना है की वह झारखण्ड में आकर यहाँ के लिए काम करें और यहाँ की कला संस्कृति को उजागर करें. कुछ सीनियर छात्र अवसरों के आभाव में मुंबई प्रस्थान भी कर चुके हैं और अगर झारखण्ड में फिल्म निर्माण की स्थिति अगर यूँ ही बनी रही तो बाकी भी उसी ओर अग्रसर होने को बाधित होंगे.

अतः हमारी झारखण्ड सरकार से निवेदन है की राज्य में, केरल, पश्चिम बंगाल, मणिपुर, महाराष्ट्र इत्यादि के तर्ज़ पर फिल्म निर्माण को बढ़ावा दें और झारखण्ड के लिए एक सशक्त फिल्म निति प्रतिपादित करें ताकि यहाँ के स्थानीय प्रतिभाओं को झारखण्ड की विजयी पताका सारे विश्व में फैलाने का मौका मिले.



-निरंजन
फ़िल्मकार

Sunday, April 26, 2015

मेरा धर्म



आज सुबह सुबह आँखे खुली तो रोज़मर्रा की तरह मैंने अपना फ़ोन उठाया. मिस्ड कॉल्स, फेसबुक सूचनाएं चेक करने के बाद जैसे ही मैं अपने होम पेज पर गया. आँखें फटी की फटी रह गयीं. समाचार कुछ ऐसा था की मानो मेरा वजूद ही छीन लिया गया हो... आज दिनांक २६/०४/२०१५ है. किसी बंधू ने अखिल भारतीय आदिवासी नेटवर्क/संघ नामक फेसबुक पेज पर आज के एक समाचार पत्र की कटिंग डाल रखी थी जिस का हैडलाइन था  "केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री जुएल उरांव ने कहा: सरना भी हिन्दू. सरना धर्म कोड की ज़रूरत नहीं." एक झटके में मैं सरना से हिन्दू हो गया...मन क्रोध से भर उठा. तरह तरह के सवाल मन सागर में तैरने लगे . कबतक, आखिर कबतक हमें अपने पहचान के लिए संघर्ष करते रहना होगा? कबतक हमारे अपने ही लोग पीठ में छूरा भोंकते रहेंगे? कबतक हम चर्च और मंदिर के बीच में पिसते रहेंगे? क्या पैसा ही सबसे बड़ी चीज़ है जो एक धर्म को धर्म का दर्जा दे सकता है? क्या कोई ऐसा धर्म नहीं हो सकता जो हिन्दू से भी बड़ा सनातनी हो? क्यों कोई धर्म बिना किसी धर्म ग्रन्थ या किसी पाखंडी धर्म गुरु के अस्तित्व में नहीं रह सकता? इंसान इन बातों को कब समझ पायेगा?

मैं बिशप वेस्टकॉट बॉयज स्कूल, नामकोम, रांची का छात्र अपर प्रेप से ही रहा हूँ. उस समय मैं अकेला सरना स्टूडेंट था स्कूल में. याद आते हैं मुझे वो दिन जब लोग मुझसे मेरा धर्म पूछते थे और मैं अन्धकार की अज्ञानता में खोया खुद को हिन्दू बताता था क्योंकि मैं क्रिस्चियन या मुसलमान तो नहीं था. कुछ लोग मुझे मेरे कुजूर होने मात्र से ही क्रिस्चियन भी मान चुके थे. और मुझसे सवाल भी करते " तू क्रिस्चियन है फिर भी चर्च नहीं जाता? ". छुट्टियों में जब मैं घर गया तो अपनी माँ से मैंने पूछा, "माँ हम हिन्दू हैं या क्रिस्चियन ?". माँ अवाक् थी. कुछ समय बाद उन्होंने मुझे बताया की हम सरना हैं. मैंने ये नाम अपने ज़हन में बैठा लिया . खुद को पहचान पाना किसे अच्छा नहीं लगता. माँ ने ये भी बताया की किस तरह हम प्रकृति पूजक हैं और हमारे त्यौहार सरहुल, कर्मा इत्यादि कृषि और प्रकृति दोनों से सीधा सम्बन्ध रखते हैं. मैंने माँ की बातें गाँठ बाँध ली थी. अब तो स्कूल में जो भी मुझसे मेरे धर्म के बारे में पूछता मैं उसे अपने धर्म के बारे में जितना हो सके शिक्षित करता. ऐसे ही हिन्दुओ, इसाइयों और मुसलमानों के बीच में मैंने १० साल गुज़ारे. एक दो छिटपुट और सरना विद्यार्थी आये. उन्होने भी कुछ दिन-महीने मेरी तरह ही अस्मिताविहीन हो कर बिताये फिर खुद के बारे में लोगों को शिक्षित किया. ऐसे ही जब मेट्रिक का फॉर्म भरने का समय आया तो धर्म के स्थान पर मैंने सरना भर दिया. फॉर्म जमा देने के एक हफ्ते बाद मुझे स्कूल ऑफिस से बुलावा आया. मैं वहां पहुंचा. मिसेस ब्रिंदा केरकेट्टा थी जिन्होंने मुझे बुलाया था. उन्होंने मेरा मेट्रिक का फॉर्म निकाला और धर्म के स्थान पर ऊँगली रख कर पूछा, "ये क्या है?" मैंने जवाब दिया "सरना". उन्होंने मुझसे पुनः पूछा "ये कौन सा धर्म है ?" फिर मैंने उन्हें बस एक पंक्ति में कुछ इस तरह शिक्षित किया..."वैसे आदिवासी जो अभी भी इसाई नहीं हुए हैं...  वे सरना हैं." मैडम भी आदिवासी ही थी पर ईसाई हो चुकी थी. उन्होंने मेरी बात को समझा फिर फॉर्म पर मेरा धर्म सरना ही लिखा.

उस दिन से मैंने हर फॉर्म पर अपना धर्म सरना ही लिखा. बाद में मैंने जाना की हमारे धर्म को सरकार के तरफ़ से कोई मान्यता प्राप्त नहीं है. फिर भी मैं आज भी अपना धर्म सरना ही लिखता हूँ, यह सोच कर की आप अगर हमसे अनजान हैं तो इसका मतलब यह भी तो नहीं की हम हैं ही नहीं. आप हमारे बारे में नहीं जानते या जानते हैं तो समझते नहीं, यह आपकी अज्ञानता है. सच यह है की हम हैं और हम इसी ग्रह के प्राणी हैं.

पिछले कुछ समय से सरना विवादों के घेरे में भी रहा. हमारे भी नए नए धर्म गुरु उभर कर सामने आने लगे. सरना धर्म के लिए अलग कोड की मांग की जाने लगी. सरना स्थलों को चिन्हित कर उनका घेराव किया जाने लगा. धर्म का राजनीतिकरण किया जाने लगा. सब ने हम पर उँगलियाँ उठायी.  सरना  तो  ऐसा  नहीं  था. पर ऐसा क्यों हुआ इस पर कभी कोई चर्चा नहीं की गयी. सच्चाई यह है की आप वैसे धर्म के अभ्यस्त हो चुके हैं जिसमें धर्म इंसान के सर पर चढ़ कर बोलता है. सरना ऐसा नहीं था फिर ऐसा करने की ज़रूरत क्यूँ आन पड़ी? आप ऐसे धर्म को धर्म मानेंगे ही नहीं जिसका कोई पूजा स्थल ना हो, जिसका कोई धर्म ग्रन्थ ना हो, जिसका राजनीतिकरण ना हुआ हो, जिसका कोई धर्म गुरु न हो. ऐसे में मरता समाज क्या न करता. जिस तरह चर्च, बाइबिल को किसी भी टारगेट समाज की भाषा में रूपांतरण करता है ताकि उस समाज के लोग भी उसे समझ सके उसी तरह हमारे अगुओं ने भी आप की ही समझ के आधार पर यह सारे कदम उठाये.सरना शब्द का नामांकन तो गत वर्षों में ही हुआ है. उससे पहले तो हम बस प्रकृति उपासक थे जो हमारा संस्कृति मात्र था, एक जीवन शैली थी . हम रेडिकल भी नहीं थे.  पर लगातार हो रहे धर्म परिवर्तन और दिकुओं के प्रवेश की वजह से हम प्रेशर में आ गए. आज हमने आपके सारे ऐबों को खुद में भी मिश्रित कर लिया है.  हमारी संस्कृति को धर्म का रूप देने के लिए आप भी जिम्मेदार हैं.

हालाँकि मैं आज भी कार्ल मार्क्स की उस अभिव्यक्ति को मानता हूँ जिसमें उनहोंने कहा था की "धर्म जनता की अफ़ीम है". यह सच है. धर्म एक ऐसा साम्राज्य है जो बिना किसी बॉर्डर के लोगों के दिलों पर राज करता है. यह एक तरह की गुलामी ही है. जिस तरह लोग देश के लिए जान देने और लेने की बात करते हैं वैसे ही धर्म के लिए भी करते हैं. हिन्दू और मुसलमानों को ही देख लो. आये दिन दंगे फसाद होते ही रहते हैं. धर्म को ये चर्च, ये मस्जिद, ये मंदिर चलाने वाली 'कंपनियां' इस तरह लोगों को घोल कर पिला देते हैं की उन्हें आभास ही नहीं होता की उनके साथ क्या किया जा रहा है. सरना में ऐसा कुछ भी नहीं था. सरना प्रतिष्ठापन कभी नहीं था. कोई धर्म गुरु भी नहीं था और ना ही उसकी कोई राजनीति थी. काश कि सब कुछ ऐसा ही रह पाता. काश सरना को धर्म बनने की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ती.

खैर जो भी हो. जुएल उरांव जी की अभिव्यक्ति पर वापस आते हैं. उनके शब्द भाजपा के उस सोच को प्रकाशमान करता है जिसमे वे सभी को हिन्दू ही समझते हैं. खास कर के उन समुदायों को जिन्होंने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया हो. सरना को अलग धर्म का दर्जा देना उनकी संख्या व शक्ति को कम करता है. इसके आलावा गौरतलब हो की देश भर के आदिवासी समाज आज अपने समूचे अस्तित्व को बचाने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून के विरोध में लगा है. झारखण्ड में तो यहाँ की स्थानीय नीति ही आदिवासियों को खा जाने को आतुर है. इसका भी जम कर विरोध किया जा रहा है. ऐसे में भाजपा के उपाध्यक्ष की यह अभिव्यक्ति शतरंज की वह चाल है जो संगठित आदिवासी शक्ति को विभाजित करने का दम रखता है. ऐसे समय में एकजुट रहना ही विकल्प है वर्ना ज़मीन और स्थानीयता के साथ अस्तित्व गंवाने के बाद क्या क्रिस्चियन और क्या सरना?

-निरंजन कुमार कुजूर
फ़िल्म निर्देशक

Friday, December 21, 2012

The Psycho ME!!!

As you go deep trying to understand life, it just keeps losing its meaning... none of it makes any sense. You  come up with one theory, there will be plenty contradicting it. Life. death, marriages, separations, aims in life, gender equality, rapes, religion, caste, colour, nationalism, mass murders, revenge, protests, jealousy, identity, togetherness. Winners want to maintain supremacy saying their uniqueness is in danger, losers would like to gain equality yet  want to remain unique. Both upper castes and lower castes discard inter-caste marriages (For purity of race and unwillingness to share the fruits of reservations respectively) yet talk about equality.

Between men and women, both are supreme in their own ways. One has the power of physical strength another has Sexuality as its power. Men who are weaker in sexuality and can get easily attracted,  and will use their physical strength to attempt a rape or rape like actions. Hence, misuse of power. Women on the other hand with the power of sexuality, try to seduce men at pivotal positions to get their jobs done or attain supremacy. Hence, again misuse of power. It is obvious that both of them have few advantages and disadvantages over various situations of life.

God has designed us differently but then gave us the brains to think, to argue, to try and alter certain realities into myths and form new realities. Why? Why? Why? On one hand we are animals just like other animals. We have animal instincts. We all need to eat, shit, love, reproduce and die. Some who have plenty, they hog, some go obsessed with love and sex, some go for a kill. On the other hand we have a set of rules to follow, rules of the society made by the Humans for Humans to make them stay as Humans. Those who act indifferent to them will be jailed or eradicated.

But there is an another truth that, the Humans will always behave according to the situations they'll find themselves in. When, a child is born in this world, there are two things that governs his/her future, 1) His/Her genes, and 2) The environment he/she grows in.... but the society's set of rules don't address these factors. The good-bad concept of the world is different. There's a court of law, there's religion and their's self conscience and consciousness (your own judgmental power). What do we do when all of them come in conflict with each other? Set of rules versus Set of rules.

About equality. Do we really want to be equal or its just a demand of the losers? About loser's. Is there any broad category that defines losers.  Everybody likes to call themselves a loser. People love calling themselves as miserables. Miserableness is such a relative term. I might be miserable but am I as miserable as those bottle pickers in the railway station who get slapped by a police wala (the keeper of law and order) for absolutely no reason? No but we will always compare ourselves with the ones who are more well off than us to make ourselves believe that we are miserable. The truth is even Ambanis feel miserable by comparing themselves to Bill Gates. And Bill will feel miserable as he knows, he'll one day die. And dear you can't be equal to God (if he exists). Equality is nothing but a lie. The fact is, You always want to be equal to your upper ones. Ever thought of becoming equal to your lower ones? Hell no!! ( Don't give me that rationale of yours that its the human nature to progress and move upwards, if this is then lot of other things can have similar excuses which you all classify as crime.)

Money. Somebody so smart created the concept of money as a unit to measure wealth and in turn made the whole world poor. Because its a creation and is a creation of a handful of people who one day declared only those who will have these pieces of papers, as many of them will be rich. So they made it and kept plenty of it for themselves and said it will eventually trickled down to the poor. The poor (now) who (once) thought that the land they owned, the cattle they owned, the crops they grew (which was enough to feed them at least till the next farming season comes back) were their wealth, now started to feel poor. Because the definition of wealth suddenly changed from assets and property to the amount of Cash you have. So they start selling their properties, they began to migrate, of course to earn CASH. This cash has a property that it can be spent on anything that your heart desires to have from a comb, to alcohol, to sex, hence gets over fast leaving the poor more poor. So the cash eventually trickles up not alone but with poor peoples wealth. All we need is someone like the Joker in Christopher Nolan's the Dark Knight, who can rob all the banks in this world and set them on fire. All at once!!!

I'm sure this write up doesn't make any sense. Life is like that It doesn't make sense.

P.S. These are random thoughts mixed with anger and confusion going on in my mind. Things will be self-contradictory in nature because that is the whole point.


Friday, May 4, 2012

Adivasi Cinema: A Dream, A Hope

मेरा नाम निरंजन कुमार कुजूर है. मूलतः मैं रांची जिले के बेड़ो प्रखंड के एक छोटे से गाँव, हुटार का निवासी हूँ. परन्तु मेरा जन्म और पालन-पोषण लोहरदगा में ही हुआ है. मेरी प्री-स्कूल की पढ़ाई उर्सुलाईन मोंटेसोरी स्कूल में हुई. फिर मेरा दाखिला Bishop Westcott Boys' School, Namkom, Ranchi में करा दिया गया. वहां से दसवीं पास करने के बाद मैंने +२ की पढाई डी.ए.वी., हेहल, रांची से की. आगे मैंने जो कुछ भी करना चाहा, मेरे माँ बाबा ने बिना सवाल किये भरपूर समर्थन दिया. इस मामले में मैं बहुत ही ज्यादा भाग्यशाली हूँ की मुझे इनके जैसे माँ बाप मिले. 

मणिपाल यूनिवर्सिटी से  मैंने   Bachelor of Arts in Journalism Mass Communications में स्नातक किया. वहां से फिल्मों में रूचि उत्पन्न हुई. वहां कोर्स के अंतिम सेमेस्टर में हमें फिल्म बनाने की बुनियादी तकनीकों का ज्ञान कराया जाता है. वहां जब हम लोगों ने कॉलेज के प्रोजेक्ट्स के लिए फिल्मे बनायीं तो मालूम हुआ की यही एक काम है जिसमे मुझे मज़ा आता है. ये आभास भी हुआ की मैं किस तरह इस काम में अपना खाना पीना और दिन दुनिया, सब भूल जाता हूँ. वापस आने के बाद मैंने झारखण्ड के सबसे महत्वपूर्ण फिल्मकारों में से एक, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता रह चुके, श्रीप्रकाश जी के साथ करीब साल भर काम किया. उनके साथ रहते हुए मुझे झारखण्ड को एक नए सिरे से देखने और समझने का मौका मिला. मुझे आभास हुआ की किस तरह हमारी भाषा, संस्कृति एवं समूचा अस्तित्व मिटने के कगार पर है. श्रीप्रकाश जी के साथ रहते रहते मैं दयामनी बारला के संपर्क में आया. उनका सादापन, उनका निस्वार्थ स्वाभाव बहुत ही प्रेरणा देने वाला था. मैं उनके आन्दोलन का विडियो कवरेज करता था. उनके साथ रहते हुए मुझे लगभग मालूम होने लगा था की झारखण्ड की ऐसी दुर्दशा क्यों है। अब तक मुझे मालूम था की मुझे फिल्में ही बनानी है लेकिन झारखण्ड आने के बाद ही मुझे फिल्में बनाने की वजह मिली.

झारखण्ड में आने के बाद मैंने देखा की हमारी युवा पीढ़ी, अपने आपको मुख्यधारा के जीवन शैली में ढूँढने की जद्दोजहद में लगा हुआ है और खुद को कहीं नहीं पाने से निराश भी हो रहा है. वह अपने आपको दूसरों के बराबर नहीं समझता. खुद के प्रति हीन भावना से ग्रस्त है. कारण हमने हमेशा ही टी.व़ी. में, फिल्मों में, किताबों में, या फिर इन्टरनेट में सिर्फ दूसरों के बारे में ही पढ़ा और जाना है. हमारे बारे में बहुत कम ही उल्लेख मिलता है. अगर मिलता भी है तो किसी न किसी तरह का fabrication जरूर होता है. जैसे की बड़े बड़े ग्रंथो, में हम राक्षस या असुर कहलाते हैं. उसी तरह कितने फिल्मों में हमें नरभक्षी या नर बलि देने वाला बना कर दिखलाया जाता है. जबकि वास्तविकता यह नहीं है. इन कारणों से आदिवासी समाज का आत्मविश्वास औरों के मुकाबले कम होता जा रहा है. चूँकि हम उन जैसे नहीं हैं, जिन्हें हम टी.वी. में देखते हैं या जिनके बारे में किताबों में पढ़ते हैं और चूँकि उनका सौंदर्य बोध हमारे सौंदर्य बोध पर हावी होता जा रहा है, हम अपने आपको निम्न श्रेणी का मान चुके  हैं. साथ ही बाहरी दुनिया ने बिना देखे और जाने आदिवासियों की एक छवि बना रखी है. आदिवासी का हुलिया, उनके लिए एक पत्ता लपेटे और भाला पकड़े हुए इंसान से ज्यादा नहीं है.
झारखण्ड बनने के १२ साल के बाद भी लोगों को पता नहीं है की झारखण्ड दिखता कैसा है? यहाँ के लोग कैसे हैं? क्या भाषाएँ बोली जाती हैं? जनता की परेशानियाँ क्या क्या हैं? शोषण किस चरम सीमा को लांघ चूका है? बाहरी दुनिया इन सारी बातों से बिलकुल ही अनभिज्ञ है. इसका सबसे बड़ा कारण ये है की उन्हें बताने और दिखने वाला कोई नहीं है. जो है वो हम में से नहीं है इसीलिए जाने अनजाने में गलत छवि परोस रहा है. मैं कभी केरल, या पंजाब नहीं गया लेकिन मैं जानता हूँ की वहां के लोग खाते क्या हैं, पहनते क्या हैं, उनकी परेशानियाँ क्या हैं, उनका नाचना गाना कैसा है? वगैरह वगैरह. कैसे?? क्योंकि हमने उनके बारे में किताबो में पढ़ा, टी.व़ी. और फिल्मों में भी देखा. लेकिन झारखण्ड को कोई भी दूसरे राज्य का आदमी बिलकुल भी नहीं जानता. वो समझता है की झारखण्ड में भोजपुरी बोली जाती है. उसे कुडुख, मुंडारी, खड़िया जैसी भाषाओँ के अस्तित्व में होने की भी जानकारी नहीं है. झारखण्ड की छवि भ्रष्ट सरकार, माओवाद, कोयला, इत्यादि से ज्यादा है और यहाँ के लोगों से कम.  इस छवि को बदलना होगा. और इसका एक मात्र सशक्त विकल्प सिनेमा है.

अभी तक जिन्होंने भी सिनेमा बनाने का प्रयास किया है, उनमें से अधिकतर गैर आदिवासी लोग हैं जो की आदिवासी बाज़ार को मद्देनज़र रखते हुए फिल्म बना रहे हैं. इसीलिए आज तक सिर्फ विडियो albums के अलावा कुछ खास काम नहीं हो पाया है. जो फिल्में आयीं हैं उनमें से ज्यादातर बॉलीवुड के सी ग्रेड का सारा कचरा समेटे हुए है. सिनेमा किसी भी समाज की भाषा, कला, संस्कृति, अस्मिता और गरिमा को बचाने और बनाये रखने का आज के युग में सबसे बड़ा विकल्प है. बेहतर होगा हम इसका बेहतर से बेहतर इस्तेमाल करें.
जहाँ तक भाषा का सवाल है. मैं खुद अपनी मात्रि भाषा कुडुख बोल नहीं पाता. कारण यह है की जब हमारे क्षेत्र में शिक्षा की शुरुआत हुई, तो उसका माध्यम हिंदी था. फिर क्षेत्र का  हर बड़ा बाबु बोलचाल में या तो हिंदी या फिर अंग्रेजी का प्रयोग करता. इसीलिए हमारे समाज के लोग जो की खुद को इन लोगों से छोटा पाते थे, अपने बच्चों को घर से ही हिंदी कई शिक्षा देने लगे ताकि वे स्कूल में हिंदी भाषा समझ सके और आगे चल कर IAS वगैरह बने. पर ऐसा करते हुए हम खुद ही अपनी भाषा को भूलते चले जा रहे हैं. बाहरी दुनिया की भाषा और संस्कृति का इस तरह का दबाव आज भी बरक़रार है और बढ़ता ही जा रहा है. हम लुप्त होने के कगार पर पहुँच गए हैं. मतलब हम जिंदा तो होंगे पर हमारी अस्मिता हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी.

मैं वर्त्तमान में सत्यजित रे फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान, कोलकाता में निर्देशन एवं पटकथा लेखन कोर्स  के द्वितीय वर्ष में अध्ययनरत हूँ . मैं अभी एक लघु फिल्म का निर्देशन करने जा रहा हूँ. यह फिल्म एक ऊरांव परिवार के ऊपर केन्द्रित है. महादेव (पिता), सुमित्रा (माँ) और मुन्नू (६ साल का पुत्र) इनके मुख्य पात्र हैं. महादेव एक शिक्षक है जिसका स्कूल एक माओवादी क्षेत्र में पड़ता है. उनका मानना है की शिक्षा ही आदिवासियों के उत्थान का एक मात्र साधन है. मुन्नू बिलकुल भी पढना नहीं चाहता. दिन भर कंचे खेलना और शाम को ६ बजते ही सो जाना उसकी पुरानी आदत है. सुमित्रा दिन रात इसी चिंता में लगी रहती है की उसका बेटा पढ़ेगा या नहीं. इस फिल्म में एक और औरत का किरदार है  जो की रोज़ इनके घर से अपने मवेशियों के लिए माड़ लेने आती है. यह किरदार थोड़ा रहस्यपूर्ण है. चूँकि यह फिल्म कुडुख में बनने वाली है, इस फिल्म के लिए मुझे कुडुख बोलने वाले कलाकारों की ज़रुरत है.  फिल्म की शूटिंग, संस्थान स्थित, स्टूडियो में होगी, जहाँ सेट का निर्माण किया जायेगा. यह फिल्म 35 mm सेल्युलोइड पर शूट की जाएगी.

महादेव: उम्र: ४० के ऊपर
             कद: ५ फुट ७ इंच या अधिक
             रंग: काला, सांवला
सुमित्रा : उम्र : ३० के ऊपर
             कद : ५ फुट ४-5 इंच
             रंग : काला, सांवला
मुन्नू:  उम्र : ६-८ साल
          रंग : काला, सांवला
रहस्यमय औरत : उम्र: ४५-५० साल
                          कद: ५ फुट १ इंच या अधिक
                          रंग: काला, सांवला

कलाकारों को अगर अभिनय नहीं आता हो तो अच्छा है. सिर्फ इच्छा होनी चाहिए. बाल कलाकार को कुडुख बोलने आना अनिवार्य नहीं है. इच्छित व्यक्ति  मुझे मेरे मोबाइल 09836021482 पर संपर्क कर सकते हैं या फिर ईमेल के द्वारा अपना फोटो, नाम, पता, मोबाइल नंबर, पेशा इत्यादि मुझे इस पते पर ईमेल कर सकते हैं : niranjankujur@gmail.com

संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया के करीब ढाई हज़ार भाषाओँ की सूचि बनायीं है जो की लुप्त होने की कगार पर हैं. जिसमें से १९८ भाषाएँ हमारे देश भारत की हैं. कुडुख उनमे से एक है. अंडमान की बो भाषा २०१० में विलुप्त हो चुकी है. हमें कुडुख को विलुप्त होने से बचाना होगा. इसके लिए आप सबको आगे आना होगा.  मेरी फिल्म ३५ mm सेल्युलोइड पर बनने वाली पहली कुडुख फिल्म होगी. कृपया इसे सफल बनाने में मदद करें.

Sunday, December 19, 2010