जब मैं स्कूल में था, तो मेरे बिहारी मित्र अक्सर हम आदिवासी छात्रों को कई नामों से बुलाते थे जैसे “जंगली”, “पत्ता” इत्यादि. उनके मन में हमारी छवि एक भाला पकड़े और केले के पत्ते लपेटे हुए जंगली सी थी. इन सब का कारण उनकी अज्ञानता थी. जो भी उनके मन में हमारे बारे में सूचनाएं आती थी वह उनक माता पिता के द्वारा डाली जाती थीं. वैसे माता पिता जो हमसे कभी भी रु-ब-रु नहीं हुए, बस हमारे बारे में कल्पना ही करते रहे. उन्होंने हमारे बारे में न पढ़ा न किसी और माध्यम से हमें जाना. इसीलिए जैसे मन में आया हमारी व्याख्या की गयी.
उसी तरह २००६ में मैंने मनिपाल
यूनिवर्सिटी, मनिपाल में पत्रकारिता का कोर्स करने के लिए दाखिला लिया. वहां जाने
के बाद मैंने पाया की झारखण्ड के बाहर, झारखण्ड की अपनी कोई पहचान नहीं है. बहुत
हुआ तो झारखण्ड को लोग नक्सलवाद की वजह से ही जानते हैं. चूँकि उन्होंने झारखंडी कला
का नाम तक नहीं सुना था इसीलिए उन्होंने झारखंडी संस्कृति को बिहारी कला क्षेत्र
से ही जोड़ कर देखा था. उन्हें लगता था बिहार की भाषा-संस्कृति ही झारखंडी संस्कृति
का स्वरुप है. वे भोजपुरी सिनेमा देख कर झारखंडी जीवन शैली का अनुमान लगते थे.
कहते थे “ झारखंडी हो या बिहारी एक ही बात है”. उन्हें हमारी जनजातीय जनसँख्या के
बारे में बिलकुल भी ज्ञान नहीं था. होता भी कैसे , जब हमने खुद को
उनके सामने सही तरीके से पेश ही नहीं किया.
किसी भी समाज को एक शक्ल प्रदान
करने के लिए उसकी कला बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है. साहित्य से हम समाज को पढ़ पाते
हैं , उनके विचार, दुःख-दर्द उनकी खुशियों में शरीक हो पाते हैं. उनके गीत संगीत
से हम उन्हें सुन पाते हैं. चित्रकला से हम उन्हें देख पाते हैं. उसी तरह चलचित्र
से हमें मोटा-मोटी एक समाज के बारे में काफी कुछ देखने और सुनने को मिलता है.
इतिहास गवाह है की जिस भी समाज ने अपने कला और संस्कृति को विकसित नहीं किया वह
लुप्त होने के कगार पर जा पहुंचा है.बड़े दुःख की बात है की आज जो भी झारखंडी या आदिवासी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है वह अपनी भाषा, संस्कृति और कला को दरकिनार करते हुए सिर्फ धर्म को असली माध्यम समझ रहा है. जबकि समय समय पर यह देखा गया है की धार्मिक कट्टरता ने समाज को हिंसा के मार्ग पर प्रेरित किया है और कला ने अहिंसा की मार्ग पर. कला के माध्यम से हम अपने आपको राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पटल पर रख सकते हैं ताकि दूसरे समाज के लोग हमें बेहतर समझ व जान सकें.
सिनेमा आज के युग में खुद को
संसार के सामने प्रस्तुतु करने का सबसे सशक्त माध्यम है. इस कला के माध्यम से हम
न केवल अपने विचारों को विश्व के सामने रख सकते हैं बल्कि हमारे जीवन की
वास्तविकता को करीब से दिखा और सुना सकते हैं. सिनेमा अपने आप में नाट्य, साहित्य,
संगीत, नृत्य इत्यादि को समेट कर परोसने की क्षमता रखता है. ज़रा सोचिये हम सिनेमा
के माध्यम से क्या क्या कर सकते हैं. हमें आज इस कला क्षेत्र को टटोलने और इसकी संभावनाओं
को ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने की ज़रूरत है.
परन्तु यह सब बिना सरकारी कृपा
के संभव नहीं है क्योंकि फिल्म निर्माण में एक न्यूनतम पूँजी की आवश्यकता होती है
और नयी-नवेली झारखंडी फिल्म इंडस्ट्री को खड़े होने के लिए तो बिलकुल ही आवश्यक है
की सरकार कुछ करे. देश के कुछ राज्य सरकार जैसे पश्चिम बंगाल, केरल इत्यादि इस बात
को भली - भांति समझते हैं की राज्य को गौरव और पहचान मुख्यतः दो चीज़ों से ज्यादा
मिलती है, खेल और सिनेमा. अब तक हम कई मौकों पर सरकार द्वारा खेल को बढ़ावा देने के
बारे में पढ़ते और सुनते आये हैं. पर सिनेमा के क्षेत्र में अभी तक कोई कार्रवाई
नहीं की गयी.
केरल की देखें तो वहां के
राज्य सरकार ने एक मंत्रालय खोल रखा है जिसका नाम है वन, पर्यावरण, परिवहन, खेल एवं
चलचित्र मंत्रालय. इस मंत्रालय के अंतर्गत केरल सरकार ने केरल स्टेट फिल्म
डेवलपमेंट कारपोरेशन का गठन किया हुआ है जो फिल्म निर्माण के क्षेत्र में वहां के
स्थानीय फिल्मकारों को सब्सिडी प्रदान
करती है. केरल सरकार के अपने स्टूडियो, लैब एवं फिल्म थिएटर हैं जो वहां फिल्म
निर्माण से ले कर एक्सिबिशन तक की सारी सुविधाओं से प्रदान करती हैं. यही नहीं केरल
की अपनी फिल्म एवं नाट्य कला संसथान भी हैं जहाँ फिल्म निर्माण एवं अभिनय की
शिक्षा दी जाती है. केरल में होने वाली वार्षिक अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह दुनिया
भर में जानी और मानी जाती है.
उसी तरह बंगाल सरकार ने भी
अपने क्षेत्रीय सिनेमा के विकास के लिए अनेक प्रयास किये हैं जैसे प्रशिक्षण संस्थान,
सिनेमा हॉल (नंदन) इत्यादि का निर्माण, आदि. महाराष्ट्र, मणिपुर और कर्नाटक भी
अपने अपने क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाये.
गौरतलब हो की आये दिन अनेक
झारखंडी फिल्मकारों ने झारखण्ड का अलग अलग मंचो पर नाम रौशन किया है. श्रीप्रकाश,
मेघनाथ, बीजू टोप्पो और श्रीराम डाल्टन ने न केवल देश के सर्वप्रतिष्ठित राष्ट्रीय
फिल्म पुरस्कार जीते बल्कि अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी झारखण्ड के झंडे गाड़े हैं. इनमें से कई झारखंडी फ़िल्मकार पैसों के आभाव में खेत बेच कर या चंदा मांग
कर फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं. फिल्मकारों में जज्बे की कोई कमी नहीं दीख पड़ती
परन्तु डर लगता है की इनके हौसले पूँजी एवं सही आधारभूत संरचना के आभाव में पस्त न
हो जायें.
आने वाले दिनों में, मेरी
तरह ही कई झारखंडी छात्र, सत्यजित रे फिल्म एवं टेलिविज़न संसथान (SRFTI), फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (FTII), पुणे
और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) सरीखे विभिन्न संस्थानों से फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में प्रशिक्षित हो कर झारखण्ड प्रस्थान करने वाले हैं. सबका यही सपना है की वह झारखण्ड में आकर यहाँ के लिए काम
करें और यहाँ की कला संस्कृति को उजागर करें. कुछ सीनियर छात्र अवसरों के आभाव में मुंबई प्रस्थान भी कर चुके हैं और अगर
झारखण्ड में फिल्म निर्माण की स्थिति अगर यूँ ही बनी रही तो बाकी भी उसी ओर अग्रसर
होने को बाधित होंगे.
अतः हमारी झारखण्ड सरकार
से निवेदन है की राज्य में, केरल, पश्चिम बंगाल, मणिपुर, महाराष्ट्र इत्यादि के
तर्ज़ पर फिल्म निर्माण को बढ़ावा दें और झारखण्ड के लिए एक सशक्त फिल्म निति
प्रतिपादित करें ताकि यहाँ के स्थानीय प्रतिभाओं को झारखण्ड की विजयी पताका सारे
विश्व में फैलाने का मौका मिले.
-निरंजन
फ़िल्मकार
फ़िल्मकार