Friday, May 4, 2012

Adivasi Cinema: A Dream, A Hope

मेरा नाम निरंजन कुमार कुजूर है. मूलतः मैं रांची जिले के बेड़ो प्रखंड के एक छोटे से गाँव, हुटार का निवासी हूँ. परन्तु मेरा जन्म और पालन-पोषण लोहरदगा में ही हुआ है. मेरी प्री-स्कूल की पढ़ाई उर्सुलाईन मोंटेसोरी स्कूल में हुई. फिर मेरा दाखिला Bishop Westcott Boys' School, Namkom, Ranchi में करा दिया गया. वहां से दसवीं पास करने के बाद मैंने +२ की पढाई डी.ए.वी., हेहल, रांची से की. आगे मैंने जो कुछ भी करना चाहा, मेरे माँ बाबा ने बिना सवाल किये भरपूर समर्थन दिया. इस मामले में मैं बहुत ही ज्यादा भाग्यशाली हूँ की मुझे इनके जैसे माँ बाप मिले. 

मणिपाल यूनिवर्सिटी से  मैंने   Bachelor of Arts in Journalism Mass Communications में स्नातक किया. वहां से फिल्मों में रूचि उत्पन्न हुई. वहां कोर्स के अंतिम सेमेस्टर में हमें फिल्म बनाने की बुनियादी तकनीकों का ज्ञान कराया जाता है. वहां जब हम लोगों ने कॉलेज के प्रोजेक्ट्स के लिए फिल्मे बनायीं तो मालूम हुआ की यही एक काम है जिसमे मुझे मज़ा आता है. ये आभास भी हुआ की मैं किस तरह इस काम में अपना खाना पीना और दिन दुनिया, सब भूल जाता हूँ. वापस आने के बाद मैंने झारखण्ड के सबसे महत्वपूर्ण फिल्मकारों में से एक, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता रह चुके, श्रीप्रकाश जी के साथ करीब साल भर काम किया. उनके साथ रहते हुए मुझे झारखण्ड को एक नए सिरे से देखने और समझने का मौका मिला. मुझे आभास हुआ की किस तरह हमारी भाषा, संस्कृति एवं समूचा अस्तित्व मिटने के कगार पर है. श्रीप्रकाश जी के साथ रहते रहते मैं दयामनी बारला के संपर्क में आया. उनका सादापन, उनका निस्वार्थ स्वाभाव बहुत ही प्रेरणा देने वाला था. मैं उनके आन्दोलन का विडियो कवरेज करता था. उनके साथ रहते हुए मुझे लगभग मालूम होने लगा था की झारखण्ड की ऐसी दुर्दशा क्यों है। अब तक मुझे मालूम था की मुझे फिल्में ही बनानी है लेकिन झारखण्ड आने के बाद ही मुझे फिल्में बनाने की वजह मिली.

झारखण्ड में आने के बाद मैंने देखा की हमारी युवा पीढ़ी, अपने आपको मुख्यधारा के जीवन शैली में ढूँढने की जद्दोजहद में लगा हुआ है और खुद को कहीं नहीं पाने से निराश भी हो रहा है. वह अपने आपको दूसरों के बराबर नहीं समझता. खुद के प्रति हीन भावना से ग्रस्त है. कारण हमने हमेशा ही टी.व़ी. में, फिल्मों में, किताबों में, या फिर इन्टरनेट में सिर्फ दूसरों के बारे में ही पढ़ा और जाना है. हमारे बारे में बहुत कम ही उल्लेख मिलता है. अगर मिलता भी है तो किसी न किसी तरह का fabrication जरूर होता है. जैसे की बड़े बड़े ग्रंथो, में हम राक्षस या असुर कहलाते हैं. उसी तरह कितने फिल्मों में हमें नरभक्षी या नर बलि देने वाला बना कर दिखलाया जाता है. जबकि वास्तविकता यह नहीं है. इन कारणों से आदिवासी समाज का आत्मविश्वास औरों के मुकाबले कम होता जा रहा है. चूँकि हम उन जैसे नहीं हैं, जिन्हें हम टी.वी. में देखते हैं या जिनके बारे में किताबों में पढ़ते हैं और चूँकि उनका सौंदर्य बोध हमारे सौंदर्य बोध पर हावी होता जा रहा है, हम अपने आपको निम्न श्रेणी का मान चुके  हैं. साथ ही बाहरी दुनिया ने बिना देखे और जाने आदिवासियों की एक छवि बना रखी है. आदिवासी का हुलिया, उनके लिए एक पत्ता लपेटे और भाला पकड़े हुए इंसान से ज्यादा नहीं है.
झारखण्ड बनने के १२ साल के बाद भी लोगों को पता नहीं है की झारखण्ड दिखता कैसा है? यहाँ के लोग कैसे हैं? क्या भाषाएँ बोली जाती हैं? जनता की परेशानियाँ क्या क्या हैं? शोषण किस चरम सीमा को लांघ चूका है? बाहरी दुनिया इन सारी बातों से बिलकुल ही अनभिज्ञ है. इसका सबसे बड़ा कारण ये है की उन्हें बताने और दिखने वाला कोई नहीं है. जो है वो हम में से नहीं है इसीलिए जाने अनजाने में गलत छवि परोस रहा है. मैं कभी केरल, या पंजाब नहीं गया लेकिन मैं जानता हूँ की वहां के लोग खाते क्या हैं, पहनते क्या हैं, उनकी परेशानियाँ क्या हैं, उनका नाचना गाना कैसा है? वगैरह वगैरह. कैसे?? क्योंकि हमने उनके बारे में किताबो में पढ़ा, टी.व़ी. और फिल्मों में भी देखा. लेकिन झारखण्ड को कोई भी दूसरे राज्य का आदमी बिलकुल भी नहीं जानता. वो समझता है की झारखण्ड में भोजपुरी बोली जाती है. उसे कुडुख, मुंडारी, खड़िया जैसी भाषाओँ के अस्तित्व में होने की भी जानकारी नहीं है. झारखण्ड की छवि भ्रष्ट सरकार, माओवाद, कोयला, इत्यादि से ज्यादा है और यहाँ के लोगों से कम.  इस छवि को बदलना होगा. और इसका एक मात्र सशक्त विकल्प सिनेमा है.

अभी तक जिन्होंने भी सिनेमा बनाने का प्रयास किया है, उनमें से अधिकतर गैर आदिवासी लोग हैं जो की आदिवासी बाज़ार को मद्देनज़र रखते हुए फिल्म बना रहे हैं. इसीलिए आज तक सिर्फ विडियो albums के अलावा कुछ खास काम नहीं हो पाया है. जो फिल्में आयीं हैं उनमें से ज्यादातर बॉलीवुड के सी ग्रेड का सारा कचरा समेटे हुए है. सिनेमा किसी भी समाज की भाषा, कला, संस्कृति, अस्मिता और गरिमा को बचाने और बनाये रखने का आज के युग में सबसे बड़ा विकल्प है. बेहतर होगा हम इसका बेहतर से बेहतर इस्तेमाल करें.
जहाँ तक भाषा का सवाल है. मैं खुद अपनी मात्रि भाषा कुडुख बोल नहीं पाता. कारण यह है की जब हमारे क्षेत्र में शिक्षा की शुरुआत हुई, तो उसका माध्यम हिंदी था. फिर क्षेत्र का  हर बड़ा बाबु बोलचाल में या तो हिंदी या फिर अंग्रेजी का प्रयोग करता. इसीलिए हमारे समाज के लोग जो की खुद को इन लोगों से छोटा पाते थे, अपने बच्चों को घर से ही हिंदी कई शिक्षा देने लगे ताकि वे स्कूल में हिंदी भाषा समझ सके और आगे चल कर IAS वगैरह बने. पर ऐसा करते हुए हम खुद ही अपनी भाषा को भूलते चले जा रहे हैं. बाहरी दुनिया की भाषा और संस्कृति का इस तरह का दबाव आज भी बरक़रार है और बढ़ता ही जा रहा है. हम लुप्त होने के कगार पर पहुँच गए हैं. मतलब हम जिंदा तो होंगे पर हमारी अस्मिता हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी.

मैं वर्त्तमान में सत्यजित रे फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान, कोलकाता में निर्देशन एवं पटकथा लेखन कोर्स  के द्वितीय वर्ष में अध्ययनरत हूँ . मैं अभी एक लघु फिल्म का निर्देशन करने जा रहा हूँ. यह फिल्म एक ऊरांव परिवार के ऊपर केन्द्रित है. महादेव (पिता), सुमित्रा (माँ) और मुन्नू (६ साल का पुत्र) इनके मुख्य पात्र हैं. महादेव एक शिक्षक है जिसका स्कूल एक माओवादी क्षेत्र में पड़ता है. उनका मानना है की शिक्षा ही आदिवासियों के उत्थान का एक मात्र साधन है. मुन्नू बिलकुल भी पढना नहीं चाहता. दिन भर कंचे खेलना और शाम को ६ बजते ही सो जाना उसकी पुरानी आदत है. सुमित्रा दिन रात इसी चिंता में लगी रहती है की उसका बेटा पढ़ेगा या नहीं. इस फिल्म में एक और औरत का किरदार है  जो की रोज़ इनके घर से अपने मवेशियों के लिए माड़ लेने आती है. यह किरदार थोड़ा रहस्यपूर्ण है. चूँकि यह फिल्म कुडुख में बनने वाली है, इस फिल्म के लिए मुझे कुडुख बोलने वाले कलाकारों की ज़रुरत है.  फिल्म की शूटिंग, संस्थान स्थित, स्टूडियो में होगी, जहाँ सेट का निर्माण किया जायेगा. यह फिल्म 35 mm सेल्युलोइड पर शूट की जाएगी.

महादेव: उम्र: ४० के ऊपर
             कद: ५ फुट ७ इंच या अधिक
             रंग: काला, सांवला
सुमित्रा : उम्र : ३० के ऊपर
             कद : ५ फुट ४-5 इंच
             रंग : काला, सांवला
मुन्नू:  उम्र : ६-८ साल
          रंग : काला, सांवला
रहस्यमय औरत : उम्र: ४५-५० साल
                          कद: ५ फुट १ इंच या अधिक
                          रंग: काला, सांवला

कलाकारों को अगर अभिनय नहीं आता हो तो अच्छा है. सिर्फ इच्छा होनी चाहिए. बाल कलाकार को कुडुख बोलने आना अनिवार्य नहीं है. इच्छित व्यक्ति  मुझे मेरे मोबाइल 09836021482 पर संपर्क कर सकते हैं या फिर ईमेल के द्वारा अपना फोटो, नाम, पता, मोबाइल नंबर, पेशा इत्यादि मुझे इस पते पर ईमेल कर सकते हैं : niranjankujur@gmail.com

संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया के करीब ढाई हज़ार भाषाओँ की सूचि बनायीं है जो की लुप्त होने की कगार पर हैं. जिसमें से १९८ भाषाएँ हमारे देश भारत की हैं. कुडुख उनमे से एक है. अंडमान की बो भाषा २०१० में विलुप्त हो चुकी है. हमें कुडुख को विलुप्त होने से बचाना होगा. इसके लिए आप सबको आगे आना होगा.  मेरी फिल्म ३५ mm सेल्युलोइड पर बनने वाली पहली कुडुख फिल्म होगी. कृपया इसे सफल बनाने में मदद करें.