Thursday, August 13, 2015

झारखंडी सिनेमा: भविष्य?


जब मैं स्कूल में था, तो मेरे बिहारी मित्र अक्सर हम आदिवासी छात्रों को कई नामों से बुलाते थे जैसे “जंगली”, “पत्ता” इत्यादि. उनके मन में हमारी छवि एक भाला पकड़े और केले के पत्ते लपेटे हुए जंगली सी थी. इन सब का कारण उनकी अज्ञानता थी. जो भी उनके मन में हमारे बारे में सूचनाएं आती थी वह उनक माता पिता के द्वारा डाली जाती थीं. वैसे माता पिता जो हमसे कभी भी रु-ब-रु नहीं हुए, बस हमारे बारे में कल्पना ही करते रहे. उन्होंने हमारे बारे में न पढ़ा न किसी और माध्यम से हमें जाना. इसीलिए जैसे मन में आया हमारी व्याख्या की गयी.

उसी तरह २००६ में मैंने मनिपाल यूनिवर्सिटी, मनिपाल में पत्रकारिता का कोर्स करने के लिए दाखिला लिया. वहां जाने के बाद मैंने पाया की झारखण्ड के बाहर, झारखण्ड की अपनी कोई पहचान नहीं है. बहुत हुआ तो झारखण्ड को लोग नक्सलवाद की वजह से ही जानते हैं. चूँकि उन्होंने झारखंडी कला का नाम तक नहीं सुना था इसीलिए उन्होंने झारखंडी संस्कृति को बिहारी कला क्षेत्र से ही जोड़ कर देखा था. उन्हें लगता था बिहार की भाषा-संस्कृति ही झारखंडी संस्कृति का स्वरुप है. वे भोजपुरी सिनेमा देख कर झारखंडी जीवन शैली का अनुमान लगते थे. कहते थे “ झारखंडी हो या बिहारी एक ही बात है”. उन्हें हमारी जनजातीय जनसँख्या के बारे में बिलकुल भी ज्ञान नहीं था. होता भी कैसे , जब   हमने खुद को उनके सामने  सही तरीके से पेश ही नहीं किया.

किसी भी समाज को एक शक्ल प्रदान करने के लिए उसकी कला बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है. साहित्य से हम समाज को पढ़ पाते हैं , उनके विचार, दुःख-दर्द उनकी खुशियों में शरीक हो पाते हैं. उनके गीत संगीत से हम उन्हें सुन पाते हैं. चित्रकला से हम उन्हें देख पाते हैं. उसी तरह चलचित्र से हमें मोटा-मोटी एक समाज के बारे में काफी कुछ देखने और सुनने को मिलता है. इतिहास गवाह है की जिस भी समाज ने अपने कला और संस्कृति को विकसित नहीं किया वह लुप्त होने के कगार पर जा पहुंचा है.बड़े दुःख की बात है की आज जो भी झारखंडी या आदिवासी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है वह अपनी भाषा, संस्कृति और कला को दरकिनार करते हुए सिर्फ धर्म को असली माध्यम समझ रहा है. जबकि समय समय पर यह देखा गया है की धार्मिक कट्टरता ने समाज को हिंसा के मार्ग पर प्रेरित किया है और कला ने अहिंसा की मार्ग पर. कला के माध्यम से हम अपने आपको राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पटल पर रख सकते हैं ताकि दूसरे समाज के लोग हमें बेहतर समझ व जान सकें.

सिनेमा आज के युग में खुद को संसार के सामने प्रस्तुतु करने का सबसे सशक्त माध्यम है. इस कला के माध्यम से हम न केवल अपने विचारों को विश्व के सामने रख सकते हैं बल्कि हमारे जीवन की वास्तविकता को करीब से दिखा और सुना सकते हैं. सिनेमा अपने आप में नाट्य, साहित्य, संगीत, नृत्य इत्यादि को समेट कर परोसने की क्षमता रखता है. ज़रा सोचिये हम सिनेमा के माध्यम से क्या क्या कर सकते हैं. हमें आज इस कला क्षेत्र को टटोलने और इसकी संभावनाओं को ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने की ज़रूरत है.

परन्तु यह सब बिना सरकारी कृपा के संभव नहीं है क्योंकि फिल्म निर्माण में एक न्यूनतम पूँजी की आवश्यकता होती है और नयी-नवेली झारखंडी फिल्म इंडस्ट्री को खड़े होने के लिए तो बिलकुल ही आवश्यक है की सरकार कुछ करे. देश के कुछ राज्य सरकार जैसे पश्चिम बंगाल, केरल इत्यादि इस बात को भली - भांति समझते हैं की राज्य को गौरव और पहचान मुख्यतः दो चीज़ों से ज्यादा मिलती है, खेल और सिनेमा. अब तक हम कई मौकों पर सरकार द्वारा खेल को बढ़ावा देने के बारे में पढ़ते और सुनते आये हैं. पर सिनेमा के क्षेत्र में अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गयी.

केरल की देखें तो वहां के राज्य सरकार ने एक मंत्रालय खोल रखा है जिसका नाम है वन, पर्यावरण, परिवहन, खेल एवं चलचित्र मंत्रालय. इस मंत्रालय के अंतर्गत केरल सरकार ने केरल स्टेट फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन का गठन किया हुआ है जो फिल्म निर्माण के क्षेत्र में वहां के स्थानीय  फिल्मकारों को सब्सिडी प्रदान करती है. केरल सरकार के अपने स्टूडियो, लैब एवं फिल्म थिएटर हैं जो वहां फिल्म निर्माण से ले कर एक्सिबिशन तक की सारी सुविधाओं से प्रदान करती हैं. यही नहीं केरल की अपनी फिल्म एवं नाट्य कला संसथान भी हैं जहाँ फिल्म निर्माण एवं अभिनय की शिक्षा दी जाती है. केरल में होने वाली वार्षिक अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह दुनिया भर में जानी और मानी जाती है.

उसी तरह बंगाल सरकार ने भी अपने क्षेत्रीय सिनेमा के विकास के लिए अनेक प्रयास किये हैं जैसे प्रशिक्षण संस्थान, सिनेमा हॉल (नंदन) इत्यादि का निर्माण, आदि. महाराष्ट्र, मणिपुर और कर्नाटक भी अपने अपने क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाये.

गौरतलब हो की आये दिन अनेक झारखंडी फिल्मकारों ने झारखण्ड का अलग अलग मंचो पर नाम रौशन किया है. श्रीप्रकाश, मेघनाथ, बीजू टोप्पो और श्रीराम डाल्टन ने न केवल देश के सर्वप्रतिष्ठित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते बल्कि अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी झारखण्ड के झंडे गाड़े हैं. इनमें से कई झारखंडी फ़िल्मकार पैसों के आभाव में खेत बेच कर या चंदा मांग कर फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं. फिल्मकारों में जज्बे की कोई कमी नहीं दीख पड़ती परन्तु डर लगता है की इनके हौसले पूँजी एवं सही आधारभूत संरचना के आभाव में पस्त न हो जायें.

आने वाले दिनों में, मेरी तरह ही कई झारखंडी छात्र, सत्यजित रे फिल्म एवं टेलिविज़न संसथान (SRFTI), फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (FTII), पुणे और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) सरीखे विभिन्न संस्थानों से फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में प्रशिक्षित हो कर झारखण्ड प्रस्थान करने वाले हैं. सबका यही सपना है की वह झारखण्ड में आकर यहाँ के लिए काम करें और यहाँ की कला संस्कृति को उजागर करें. कुछ सीनियर छात्र अवसरों के आभाव में मुंबई प्रस्थान भी कर चुके हैं और अगर झारखण्ड में फिल्म निर्माण की स्थिति अगर यूँ ही बनी रही तो बाकी भी उसी ओर अग्रसर होने को बाधित होंगे.

अतः हमारी झारखण्ड सरकार से निवेदन है की राज्य में, केरल, पश्चिम बंगाल, मणिपुर, महाराष्ट्र इत्यादि के तर्ज़ पर फिल्म निर्माण को बढ़ावा दें और झारखण्ड के लिए एक सशक्त फिल्म निति प्रतिपादित करें ताकि यहाँ के स्थानीय प्रतिभाओं को झारखण्ड की विजयी पताका सारे विश्व में फैलाने का मौका मिले.



-निरंजन
फ़िल्मकार

Sunday, April 26, 2015

मेरा धर्म



आज सुबह सुबह आँखे खुली तो रोज़मर्रा की तरह मैंने अपना फ़ोन उठाया. मिस्ड कॉल्स, फेसबुक सूचनाएं चेक करने के बाद जैसे ही मैं अपने होम पेज पर गया. आँखें फटी की फटी रह गयीं. समाचार कुछ ऐसा था की मानो मेरा वजूद ही छीन लिया गया हो... आज दिनांक २६/०४/२०१५ है. किसी बंधू ने अखिल भारतीय आदिवासी नेटवर्क/संघ नामक फेसबुक पेज पर आज के एक समाचार पत्र की कटिंग डाल रखी थी जिस का हैडलाइन था  "केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री जुएल उरांव ने कहा: सरना भी हिन्दू. सरना धर्म कोड की ज़रूरत नहीं." एक झटके में मैं सरना से हिन्दू हो गया...मन क्रोध से भर उठा. तरह तरह के सवाल मन सागर में तैरने लगे . कबतक, आखिर कबतक हमें अपने पहचान के लिए संघर्ष करते रहना होगा? कबतक हमारे अपने ही लोग पीठ में छूरा भोंकते रहेंगे? कबतक हम चर्च और मंदिर के बीच में पिसते रहेंगे? क्या पैसा ही सबसे बड़ी चीज़ है जो एक धर्म को धर्म का दर्जा दे सकता है? क्या कोई ऐसा धर्म नहीं हो सकता जो हिन्दू से भी बड़ा सनातनी हो? क्यों कोई धर्म बिना किसी धर्म ग्रन्थ या किसी पाखंडी धर्म गुरु के अस्तित्व में नहीं रह सकता? इंसान इन बातों को कब समझ पायेगा?

मैं बिशप वेस्टकॉट बॉयज स्कूल, नामकोम, रांची का छात्र अपर प्रेप से ही रहा हूँ. उस समय मैं अकेला सरना स्टूडेंट था स्कूल में. याद आते हैं मुझे वो दिन जब लोग मुझसे मेरा धर्म पूछते थे और मैं अन्धकार की अज्ञानता में खोया खुद को हिन्दू बताता था क्योंकि मैं क्रिस्चियन या मुसलमान तो नहीं था. कुछ लोग मुझे मेरे कुजूर होने मात्र से ही क्रिस्चियन भी मान चुके थे. और मुझसे सवाल भी करते " तू क्रिस्चियन है फिर भी चर्च नहीं जाता? ". छुट्टियों में जब मैं घर गया तो अपनी माँ से मैंने पूछा, "माँ हम हिन्दू हैं या क्रिस्चियन ?". माँ अवाक् थी. कुछ समय बाद उन्होंने मुझे बताया की हम सरना हैं. मैंने ये नाम अपने ज़हन में बैठा लिया . खुद को पहचान पाना किसे अच्छा नहीं लगता. माँ ने ये भी बताया की किस तरह हम प्रकृति पूजक हैं और हमारे त्यौहार सरहुल, कर्मा इत्यादि कृषि और प्रकृति दोनों से सीधा सम्बन्ध रखते हैं. मैंने माँ की बातें गाँठ बाँध ली थी. अब तो स्कूल में जो भी मुझसे मेरे धर्म के बारे में पूछता मैं उसे अपने धर्म के बारे में जितना हो सके शिक्षित करता. ऐसे ही हिन्दुओ, इसाइयों और मुसलमानों के बीच में मैंने १० साल गुज़ारे. एक दो छिटपुट और सरना विद्यार्थी आये. उन्होने भी कुछ दिन-महीने मेरी तरह ही अस्मिताविहीन हो कर बिताये फिर खुद के बारे में लोगों को शिक्षित किया. ऐसे ही जब मेट्रिक का फॉर्म भरने का समय आया तो धर्म के स्थान पर मैंने सरना भर दिया. फॉर्म जमा देने के एक हफ्ते बाद मुझे स्कूल ऑफिस से बुलावा आया. मैं वहां पहुंचा. मिसेस ब्रिंदा केरकेट्टा थी जिन्होंने मुझे बुलाया था. उन्होंने मेरा मेट्रिक का फॉर्म निकाला और धर्म के स्थान पर ऊँगली रख कर पूछा, "ये क्या है?" मैंने जवाब दिया "सरना". उन्होंने मुझसे पुनः पूछा "ये कौन सा धर्म है ?" फिर मैंने उन्हें बस एक पंक्ति में कुछ इस तरह शिक्षित किया..."वैसे आदिवासी जो अभी भी इसाई नहीं हुए हैं...  वे सरना हैं." मैडम भी आदिवासी ही थी पर ईसाई हो चुकी थी. उन्होंने मेरी बात को समझा फिर फॉर्म पर मेरा धर्म सरना ही लिखा.

उस दिन से मैंने हर फॉर्म पर अपना धर्म सरना ही लिखा. बाद में मैंने जाना की हमारे धर्म को सरकार के तरफ़ से कोई मान्यता प्राप्त नहीं है. फिर भी मैं आज भी अपना धर्म सरना ही लिखता हूँ, यह सोच कर की आप अगर हमसे अनजान हैं तो इसका मतलब यह भी तो नहीं की हम हैं ही नहीं. आप हमारे बारे में नहीं जानते या जानते हैं तो समझते नहीं, यह आपकी अज्ञानता है. सच यह है की हम हैं और हम इसी ग्रह के प्राणी हैं.

पिछले कुछ समय से सरना विवादों के घेरे में भी रहा. हमारे भी नए नए धर्म गुरु उभर कर सामने आने लगे. सरना धर्म के लिए अलग कोड की मांग की जाने लगी. सरना स्थलों को चिन्हित कर उनका घेराव किया जाने लगा. धर्म का राजनीतिकरण किया जाने लगा. सब ने हम पर उँगलियाँ उठायी.  सरना  तो  ऐसा  नहीं  था. पर ऐसा क्यों हुआ इस पर कभी कोई चर्चा नहीं की गयी. सच्चाई यह है की आप वैसे धर्म के अभ्यस्त हो चुके हैं जिसमें धर्म इंसान के सर पर चढ़ कर बोलता है. सरना ऐसा नहीं था फिर ऐसा करने की ज़रूरत क्यूँ आन पड़ी? आप ऐसे धर्म को धर्म मानेंगे ही नहीं जिसका कोई पूजा स्थल ना हो, जिसका कोई धर्म ग्रन्थ ना हो, जिसका राजनीतिकरण ना हुआ हो, जिसका कोई धर्म गुरु न हो. ऐसे में मरता समाज क्या न करता. जिस तरह चर्च, बाइबिल को किसी भी टारगेट समाज की भाषा में रूपांतरण करता है ताकि उस समाज के लोग भी उसे समझ सके उसी तरह हमारे अगुओं ने भी आप की ही समझ के आधार पर यह सारे कदम उठाये.सरना शब्द का नामांकन तो गत वर्षों में ही हुआ है. उससे पहले तो हम बस प्रकृति उपासक थे जो हमारा संस्कृति मात्र था, एक जीवन शैली थी . हम रेडिकल भी नहीं थे.  पर लगातार हो रहे धर्म परिवर्तन और दिकुओं के प्रवेश की वजह से हम प्रेशर में आ गए. आज हमने आपके सारे ऐबों को खुद में भी मिश्रित कर लिया है.  हमारी संस्कृति को धर्म का रूप देने के लिए आप भी जिम्मेदार हैं.

हालाँकि मैं आज भी कार्ल मार्क्स की उस अभिव्यक्ति को मानता हूँ जिसमें उनहोंने कहा था की "धर्म जनता की अफ़ीम है". यह सच है. धर्म एक ऐसा साम्राज्य है जो बिना किसी बॉर्डर के लोगों के दिलों पर राज करता है. यह एक तरह की गुलामी ही है. जिस तरह लोग देश के लिए जान देने और लेने की बात करते हैं वैसे ही धर्म के लिए भी करते हैं. हिन्दू और मुसलमानों को ही देख लो. आये दिन दंगे फसाद होते ही रहते हैं. धर्म को ये चर्च, ये मस्जिद, ये मंदिर चलाने वाली 'कंपनियां' इस तरह लोगों को घोल कर पिला देते हैं की उन्हें आभास ही नहीं होता की उनके साथ क्या किया जा रहा है. सरना में ऐसा कुछ भी नहीं था. सरना प्रतिष्ठापन कभी नहीं था. कोई धर्म गुरु भी नहीं था और ना ही उसकी कोई राजनीति थी. काश कि सब कुछ ऐसा ही रह पाता. काश सरना को धर्म बनने की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ती.

खैर जो भी हो. जुएल उरांव जी की अभिव्यक्ति पर वापस आते हैं. उनके शब्द भाजपा के उस सोच को प्रकाशमान करता है जिसमे वे सभी को हिन्दू ही समझते हैं. खास कर के उन समुदायों को जिन्होंने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया हो. सरना को अलग धर्म का दर्जा देना उनकी संख्या व शक्ति को कम करता है. इसके आलावा गौरतलब हो की देश भर के आदिवासी समाज आज अपने समूचे अस्तित्व को बचाने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून के विरोध में लगा है. झारखण्ड में तो यहाँ की स्थानीय नीति ही आदिवासियों को खा जाने को आतुर है. इसका भी जम कर विरोध किया जा रहा है. ऐसे में भाजपा के उपाध्यक्ष की यह अभिव्यक्ति शतरंज की वह चाल है जो संगठित आदिवासी शक्ति को विभाजित करने का दम रखता है. ऐसे समय में एकजुट रहना ही विकल्प है वर्ना ज़मीन और स्थानीयता के साथ अस्तित्व गंवाने के बाद क्या क्रिस्चियन और क्या सरना?

-निरंजन कुमार कुजूर
फ़िल्म निर्देशक