Sunday, April 26, 2015

मेरा धर्म



आज सुबह सुबह आँखे खुली तो रोज़मर्रा की तरह मैंने अपना फ़ोन उठाया. मिस्ड कॉल्स, फेसबुक सूचनाएं चेक करने के बाद जैसे ही मैं अपने होम पेज पर गया. आँखें फटी की फटी रह गयीं. समाचार कुछ ऐसा था की मानो मेरा वजूद ही छीन लिया गया हो... आज दिनांक २६/०४/२०१५ है. किसी बंधू ने अखिल भारतीय आदिवासी नेटवर्क/संघ नामक फेसबुक पेज पर आज के एक समाचार पत्र की कटिंग डाल रखी थी जिस का हैडलाइन था  "केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री जुएल उरांव ने कहा: सरना भी हिन्दू. सरना धर्म कोड की ज़रूरत नहीं." एक झटके में मैं सरना से हिन्दू हो गया...मन क्रोध से भर उठा. तरह तरह के सवाल मन सागर में तैरने लगे . कबतक, आखिर कबतक हमें अपने पहचान के लिए संघर्ष करते रहना होगा? कबतक हमारे अपने ही लोग पीठ में छूरा भोंकते रहेंगे? कबतक हम चर्च और मंदिर के बीच में पिसते रहेंगे? क्या पैसा ही सबसे बड़ी चीज़ है जो एक धर्म को धर्म का दर्जा दे सकता है? क्या कोई ऐसा धर्म नहीं हो सकता जो हिन्दू से भी बड़ा सनातनी हो? क्यों कोई धर्म बिना किसी धर्म ग्रन्थ या किसी पाखंडी धर्म गुरु के अस्तित्व में नहीं रह सकता? इंसान इन बातों को कब समझ पायेगा?

मैं बिशप वेस्टकॉट बॉयज स्कूल, नामकोम, रांची का छात्र अपर प्रेप से ही रहा हूँ. उस समय मैं अकेला सरना स्टूडेंट था स्कूल में. याद आते हैं मुझे वो दिन जब लोग मुझसे मेरा धर्म पूछते थे और मैं अन्धकार की अज्ञानता में खोया खुद को हिन्दू बताता था क्योंकि मैं क्रिस्चियन या मुसलमान तो नहीं था. कुछ लोग मुझे मेरे कुजूर होने मात्र से ही क्रिस्चियन भी मान चुके थे. और मुझसे सवाल भी करते " तू क्रिस्चियन है फिर भी चर्च नहीं जाता? ". छुट्टियों में जब मैं घर गया तो अपनी माँ से मैंने पूछा, "माँ हम हिन्दू हैं या क्रिस्चियन ?". माँ अवाक् थी. कुछ समय बाद उन्होंने मुझे बताया की हम सरना हैं. मैंने ये नाम अपने ज़हन में बैठा लिया . खुद को पहचान पाना किसे अच्छा नहीं लगता. माँ ने ये भी बताया की किस तरह हम प्रकृति पूजक हैं और हमारे त्यौहार सरहुल, कर्मा इत्यादि कृषि और प्रकृति दोनों से सीधा सम्बन्ध रखते हैं. मैंने माँ की बातें गाँठ बाँध ली थी. अब तो स्कूल में जो भी मुझसे मेरे धर्म के बारे में पूछता मैं उसे अपने धर्म के बारे में जितना हो सके शिक्षित करता. ऐसे ही हिन्दुओ, इसाइयों और मुसलमानों के बीच में मैंने १० साल गुज़ारे. एक दो छिटपुट और सरना विद्यार्थी आये. उन्होने भी कुछ दिन-महीने मेरी तरह ही अस्मिताविहीन हो कर बिताये फिर खुद के बारे में लोगों को शिक्षित किया. ऐसे ही जब मेट्रिक का फॉर्म भरने का समय आया तो धर्म के स्थान पर मैंने सरना भर दिया. फॉर्म जमा देने के एक हफ्ते बाद मुझे स्कूल ऑफिस से बुलावा आया. मैं वहां पहुंचा. मिसेस ब्रिंदा केरकेट्टा थी जिन्होंने मुझे बुलाया था. उन्होंने मेरा मेट्रिक का फॉर्म निकाला और धर्म के स्थान पर ऊँगली रख कर पूछा, "ये क्या है?" मैंने जवाब दिया "सरना". उन्होंने मुझसे पुनः पूछा "ये कौन सा धर्म है ?" फिर मैंने उन्हें बस एक पंक्ति में कुछ इस तरह शिक्षित किया..."वैसे आदिवासी जो अभी भी इसाई नहीं हुए हैं...  वे सरना हैं." मैडम भी आदिवासी ही थी पर ईसाई हो चुकी थी. उन्होंने मेरी बात को समझा फिर फॉर्म पर मेरा धर्म सरना ही लिखा.

उस दिन से मैंने हर फॉर्म पर अपना धर्म सरना ही लिखा. बाद में मैंने जाना की हमारे धर्म को सरकार के तरफ़ से कोई मान्यता प्राप्त नहीं है. फिर भी मैं आज भी अपना धर्म सरना ही लिखता हूँ, यह सोच कर की आप अगर हमसे अनजान हैं तो इसका मतलब यह भी तो नहीं की हम हैं ही नहीं. आप हमारे बारे में नहीं जानते या जानते हैं तो समझते नहीं, यह आपकी अज्ञानता है. सच यह है की हम हैं और हम इसी ग्रह के प्राणी हैं.

पिछले कुछ समय से सरना विवादों के घेरे में भी रहा. हमारे भी नए नए धर्म गुरु उभर कर सामने आने लगे. सरना धर्म के लिए अलग कोड की मांग की जाने लगी. सरना स्थलों को चिन्हित कर उनका घेराव किया जाने लगा. धर्म का राजनीतिकरण किया जाने लगा. सब ने हम पर उँगलियाँ उठायी.  सरना  तो  ऐसा  नहीं  था. पर ऐसा क्यों हुआ इस पर कभी कोई चर्चा नहीं की गयी. सच्चाई यह है की आप वैसे धर्म के अभ्यस्त हो चुके हैं जिसमें धर्म इंसान के सर पर चढ़ कर बोलता है. सरना ऐसा नहीं था फिर ऐसा करने की ज़रूरत क्यूँ आन पड़ी? आप ऐसे धर्म को धर्म मानेंगे ही नहीं जिसका कोई पूजा स्थल ना हो, जिसका कोई धर्म ग्रन्थ ना हो, जिसका राजनीतिकरण ना हुआ हो, जिसका कोई धर्म गुरु न हो. ऐसे में मरता समाज क्या न करता. जिस तरह चर्च, बाइबिल को किसी भी टारगेट समाज की भाषा में रूपांतरण करता है ताकि उस समाज के लोग भी उसे समझ सके उसी तरह हमारे अगुओं ने भी आप की ही समझ के आधार पर यह सारे कदम उठाये.सरना शब्द का नामांकन तो गत वर्षों में ही हुआ है. उससे पहले तो हम बस प्रकृति उपासक थे जो हमारा संस्कृति मात्र था, एक जीवन शैली थी . हम रेडिकल भी नहीं थे.  पर लगातार हो रहे धर्म परिवर्तन और दिकुओं के प्रवेश की वजह से हम प्रेशर में आ गए. आज हमने आपके सारे ऐबों को खुद में भी मिश्रित कर लिया है.  हमारी संस्कृति को धर्म का रूप देने के लिए आप भी जिम्मेदार हैं.

हालाँकि मैं आज भी कार्ल मार्क्स की उस अभिव्यक्ति को मानता हूँ जिसमें उनहोंने कहा था की "धर्म जनता की अफ़ीम है". यह सच है. धर्म एक ऐसा साम्राज्य है जो बिना किसी बॉर्डर के लोगों के दिलों पर राज करता है. यह एक तरह की गुलामी ही है. जिस तरह लोग देश के लिए जान देने और लेने की बात करते हैं वैसे ही धर्म के लिए भी करते हैं. हिन्दू और मुसलमानों को ही देख लो. आये दिन दंगे फसाद होते ही रहते हैं. धर्म को ये चर्च, ये मस्जिद, ये मंदिर चलाने वाली 'कंपनियां' इस तरह लोगों को घोल कर पिला देते हैं की उन्हें आभास ही नहीं होता की उनके साथ क्या किया जा रहा है. सरना में ऐसा कुछ भी नहीं था. सरना प्रतिष्ठापन कभी नहीं था. कोई धर्म गुरु भी नहीं था और ना ही उसकी कोई राजनीति थी. काश कि सब कुछ ऐसा ही रह पाता. काश सरना को धर्म बनने की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ती.

खैर जो भी हो. जुएल उरांव जी की अभिव्यक्ति पर वापस आते हैं. उनके शब्द भाजपा के उस सोच को प्रकाशमान करता है जिसमे वे सभी को हिन्दू ही समझते हैं. खास कर के उन समुदायों को जिन्होंने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया हो. सरना को अलग धर्म का दर्जा देना उनकी संख्या व शक्ति को कम करता है. इसके आलावा गौरतलब हो की देश भर के आदिवासी समाज आज अपने समूचे अस्तित्व को बचाने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून के विरोध में लगा है. झारखण्ड में तो यहाँ की स्थानीय नीति ही आदिवासियों को खा जाने को आतुर है. इसका भी जम कर विरोध किया जा रहा है. ऐसे में भाजपा के उपाध्यक्ष की यह अभिव्यक्ति शतरंज की वह चाल है जो संगठित आदिवासी शक्ति को विभाजित करने का दम रखता है. ऐसे समय में एकजुट रहना ही विकल्प है वर्ना ज़मीन और स्थानीयता के साथ अस्तित्व गंवाने के बाद क्या क्रिस्चियन और क्या सरना?

-निरंजन कुमार कुजूर
फ़िल्म निर्देशक

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